



मंडी/विवेकानंद वशिष्ठ :- अघोरा चतुर्दशी (डगयाली) आज 21 अगस्त 2025 दोपहर 12:44 से आरम्भ 22 अगस्त 2025 प्रातः11:55 तक है आज रात हिमाचल प्रदेश के जिला मण्डी पधर उपमंडल के घोघर धार की डायना सर में डायनों व देवताओ के बीच घोर संग्राम होगा चार दिन चलने बाले इस संग्राम में डायनों व देवताओ में से किसकी जीत होगी उसका निर्णय संकटा चतुर्थी ( पत्थर चौथ ) की रात को सुनाया जाएगा ।
अगर डायने जीती तो फसलो कि पैदावार अच्छी होगी परन्तु रोग कष्ट आपदाएं बढ़ेगी।इसके विपरीत देवताओं की जीत पर फसले कम ,रोग कष्ट व आपदाओं से मुक्ति मिलेगी। अब देखते है किस की जीत होती है।
बुरी शक्तिओ से बचने के लिए घर के दरवाजे पर भेखली या तिमीर ( तिरमिरा ) की टहनी लगाएं।

अघोरा चतुर्दशी एक विशेष धार्मिक पर्व है जिसे पितरों की पूजा एवं तंत्र कार्यों की सिद्धि के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण माना गया है। शास्त्रों के अनुसार भाद्रपद माह में आने वाली कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को अघोरा चतुर्दशी का उत्सव मनाया जाता है।
खासतौर से यह पर्व हिमाचल से जुड़े क्षेत्रों, उत्तराखंड, नेपाल और पूर्वोत्तर भारत के कुछ हिस्सों में भक्ति भाव के साथ मनाया जाता है। लोक मान्यताओं के अनुसार इस समय को डगयाली भी कहा जाता है और यह उत्सव दो दिनों तक चलता है।

पहले दिन को छोटी डगयाली तथा दूसरे दिन इसे बड़ी डगयाली के नाम से जाना जाता है। शास्त्रीय ग्रंथों में इस चतुर्दशी को कुशाग्रहणी अमावस्या या कुशोत्पाटिनी अमावस्या के रूप में भी वर्णित किया गया है। यह पर्व विशेष रूप से भगवान शिव के उपासकों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण माना गया है।
धार्मिक मान्यताओं के अनुसार इस दिन की गई पूजा, दान, व्रत और तर्पण कार्यों का विशेष फल प्राप्त होता है। विशेष रूप से पितरों की शांति और आत्मा की तृप्ति हेतु इस तिथि का विशेष महत्व है।अघोरा चतुर्दशी के दिन भूत-प्रेत बाधाओं से मुक्ति पाने हेतु कई स्थानों पर विशेष परंपराएं निभाई जाती हैं।
हिमाचल प्रदेश के सोलन, शिमला और सिरमौर जिलों में लोग अपने घरों की खिड़कियों और दरवाजों पर कांटेदार झाड़ियों ( तिमीर, भेखली.)को लगाते हैं ताकि नकारात्मक शक्तियां घर में प्रवेश न कर सकें।
यह परंपरा सदियों पुरानी है और इसे ग्रामीण संस्कृति में गहरे विश्वास के साथ निभाया जाता है। अघोरा चतुर्दशी पूर्वजों का स्मरण और प्रकृति से जुड़ने का अवसर प्रदान करता है।
इस दिन का स्नान, व्रत और दान हमें कर्मों की शुद्धि और मानसिक शांति की ओर अग्रसर करता है। हिं सनातन धर्म में कुशा को एक विशेष प्रकार की पवित्र घास के रुप में जाना जाता है जिसका प्रयोग लगभग सभी धार्मिक अनुष्ठानों में किया जाता है।
इसलिए इस दिन विशेष रूप से वर्षभर के लिए शुद्ध और योग्य कुशा एकत्रित की जाती है। इसे कुशोत्पाटिनी अमावस्या भी कहा जाता है। शास्त्रों के अनुसार ऐसी कुशा उपयुक्त मानी जाती है जो हरी हो, जिसमें सात पत्तियां हों, उसका मूल तीखा हो और कोई हिस्सा कटा फटा न हो।
ऐसी कुशा देवताओं के पूजन और पितृ कार्यों दोनों के लिए उचित होती है। कुशा तोड़ते समय “हूं फट्” मंत्र का उच्चारण करना अनिवार्य माना गया है, जिससे इसे धार्मिक ऊर्जा प्राप्त होती है।

रक्षाबंधन और श्री कृष्ण जन्माष्टमी के धूम के बाद अब लोक उत्सव डंगवांस आ रहा है।
भादो महीना शुरू होते ही मंडी की घोघरधार पहाड़ी पर देवताओं और डंकिनीयों के बीच धरती पर शक्तियों के निर्धारण के लिए हार पासा खेला जाने लगा है।
डंगवांस पर रात 12 बजे दोनों पक्षों में निर्णायक युद्ध होगा। इसे डंगवांस के साथ ही अघोरा चतुर्दशी भी कहा गया है।

जादू टोना जानने वाली महिलाएं तांत्रिक शक्तियां अर्जित करने ‘डंगवांस’ पर पहुंचेंगी घोघरधार
दादी-नानी की कहानियों में तो यह भी सुनने को मिलता रहा है कि डंगवांस वाले दिन जादू टोना, तंत्र जानने वाली महिलाएं तांत्रिक शक्तियां अर्जित करने के लिए घोघरधार पर पहुंचती हैं।
डंगवांस पर शाम ढलते ही नकारात्मक ऊर्जा का प्रभाव देखने को मिलता है। कई लोगों पर नकारात्मक शक्तियों का साया पड़ने से उन्हें डुंगास लगना कहा जाता है। इसके निदान के उपाय भी सुझाए गए हैं।
पहाड़ के कुछ क्षेत्रों में तो आज के आधुनिक युग में भी डंगवांस वाले दिन शाम के समय बच्चों को घर से बाहर नहीं भेजा जाता है।
वहीं परिवार के बड़े सदस्यों को शाम के समय घर से बाहर जाना हो तो नकारात्मक ऊर्जा से सुरक्षा कवच को अभिमंत्रित सरसों के दाने पास में रखने का रिवाज है।
घरों की छतों पर भी अभिमंत्रित सरसों के दाने रखे जाते हैं, वहीं दरवाजों पर कंटीली झाड़ी लगाने की परंपरा रही है।

डंगवांस के उपलक्ष्य में अब हफ्ता भर जनपद के देवी मां के विभिन्न सिद्धपीठों में जाग का आयोजन होगा। घोघरधार में हार-पासा खेल का परिणाम देवस्थलों पर आयोजित होने वाली जाग के दौरान ही सुनाया जाता है।
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